- परिवहन निगम के हैदरगढ़ डिपो में संविदा पर तैनात प्रदीप पाण्डेय के मामले पर माननीय उच्च न्यायालय ने जारी किए थे आदेश
- आदेश की कॉपी तक रिसीव करने को तैयार नहीं सहायक क्षेत्रीय प्रबंधक जगदीश प्रसाद
नेशन स्टेशन ब्यूरो
लखनऊ:-मामला उत्तर प्रदेश परिवहन निगम का है। जहां पर सहायक क्षेत्रीय प्रबंधक के पद पर तैनात अधिकारी माननीय उच्च न्यायालय के आदेश को नजरअंदाज करने में लगे हुए हैं। अहम इतना है, कि एआरएम साहब उच्च न्यायालय के आदेश को भी रिसीव करने को तैयार नहीं है। बताते चलें कि 2 जनवरी 2024 को हैदरगढ़ डिपो में संविदा चालक के पद पर तैनात प्रदीप कुमार पांडेय की एकपक्षिय कार्यवाहीं करते हुए, तत्कालीन केंद्र प्रभारी राधा प्रधान की रिपोर्ट को आधार बनाकर संविदा समाप्त कर दी गई थी। कार्रवाई के फलस्वरूप सहायक क्षेत्रीय प्रबंधक द्वारा बताया गया,कि संबंधित चालक चारबाग प्रबंधन एआरएम से मिसबिहेव कर रहा है। परंतु जिस वीडियो को आधार बनाकर एआरएम उपनगरीय डिपो ने अपने अधीनस्थ कर्मचारी केंद्र प्रभारी पद पर तैनात राधा प्रधान की रिपोर्ट के आधार पर की, उस आदेश को पूरी तरह से माननीय उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया। आदेश निरस्त होने के बावजूद भी पीड़ित चालक कार्यरत डिपो में नौकरी पुनः ज्वाइन करने के लिए अधिकारियों की मिन्नते करता रहा। परंतु संबंधित अधिकारी माननीय उच्च न्यायालय के लखनऊ खंडपीठ द्वारा रद्द किए गए आदेशों के साथ सुनवाई के मौके को सिरे से खारिज कर दिया, और हैदरगढ़ डिपो में आदेश रिसीव करने से साफ़ मना कर दिया। जिससे यह स्पष्ट तौर पर समझा जा सकता है, कि परिवहन निगम के डिपो स्तर के अधिकारी किस कदर मनमानी रवैया अख्तियार कर रहे हैं। मामला उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ का ही है,तो आप समझ ही सकते होंगे, कि दूर-दराज स्थित क्षेत्र में क्या हालत पनप रहे होंगे। जहां पर एक अधिकारी अपने आप को न्यायालय से भी सर्वोपरि समझ रहे है। वही पीड़ित चालक अपने बच्चों के भरण-पोषण के लिए दर-दर की ठोकरे खाने को मजबूर है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अधिकारियों की समय-समय पर क्लास लगाते रहते हैं,बावजूद इसके निचले स्तर के प्रबंधकीय अधिकारी इस कदर आदेशों की अवहेलना कर बेखौफ रहेंगे,यह किसी ने सोचा भी नहीं होगा। परिवहन निगम में इस तरह का कोई पहला मामला नहीं है।
इसके पहले भी न जाने कितने संविदा कर्मियों ने अपने अधिकारियों की हनक के चलते अपनी नौकरी गवाई है।लोकतांत्रिक देश के तौर पर आजादी की स्वायत्तता हमारे संविधान ने प्रदान की है। परंतु संवैधानिक न्याय की उपेक्षा इस तरीके से होगी। इस बात की कल्पना बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने भी नहीं की होगी। लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि मानी जाती है। लोकतंत्र के सबसे बेहतर स्तंभ के तौर पर न्यायालय को देखा जाता है। जब कोई नागरिक अपनी बुनियादी सुविधाओं अथवा किसी तरह के अकाल्पनिक समस्याओं के दौर से गुजरते है। तो वह न्यायालय की शरण लेता है,और इस उम्मीद के साथ वह न्यायालय में दरकार लगाता है, कि वह न्यायालय से न्याय ज़रुर प्राप्त करेगा। परंतु जिस तरीके से सहायक क्षेत्रीय प्रबंधक जगदीश प्रसाद मनमानी रवैया अपनाकर कार्य कर रहे हैं। उसे देखकर लगता हैं, कि शोषण का कोई अंत नहीं है। और सीधे तौर पर इसे कंटेंप्ट आफ कोर्ट (न्यायालय की अवमानना)के तौर पर देखा जाए,तो भी कोई बुराई नहीं होगी।
क्या कहते हैं जिम्मेदार
परिवहन निगम के मुख्य प्रधान प्रबंधक (एडमिन) राम सिंह वर्मा से जब नेशन स्टेशन संवाददाता ने बात की तो उन्होंने मामले को संज्ञान में लेकर कार्रवाई करने की बात कही उन्होंने कहा परिवहन निगम कोर्ट से शीर्ष पर नहीं है। माननीय उच्च न्यायालय के जो आदेश है। उसे पूरी तरीके से अमल में लाया जाएगा।
क्या कहते हैं क्षेत्रीय प्रबंधक
क्षेत्रीय प्रबंधक आरके त्रिपाठी से जब नेशन स्टेशन संवाददाता ने बात की तो उन्होंने मामले की जानकारी होने को लेकर सिरे से ही नकार दिया। जबकि सोशल साईट “एक्स” पर मामला हाइलाइट होने के कारण लगातार परिवहन निगम लखनऊ क्षेत्र मामले पर बारीकी से नजर बनाए हुए हैं।अगर क्षेत्रीय प्रबंधक की बात से कयास लगाए,तो यह स्पष्ट तौर पर समझा जा सकता है, कि या तो क्षेत्रीय प्रबंधक मामले से अपने अधीनस्थ अधिकारियों को बचाने में लगे हुए हैं, अथवा वह मामले की गंभीरता को देखकर शोषण के विरुद्ध बोलना ही नहीं चाहते हैं। वहीं जब सहायक क्षेत्रीय प्रबंधक जगदीश प्रसाद से बातचीत करने की कोशिश की गई तो पहले तो उन्होंने आवाज ना आने की बात कही, उसके बाद उन्होंने फोन उठाना भी बंद कर दिया।जिससे यह स्पष्ट तौर पर समझा जा सकता है की जिम्मेदार अपनी जिम्मेदारियों से किस तरीके से बचते दिखाई दे रहे हैं।
क्या कहते हैं कानूनी जानकर
उच्च न्यायालय में कानूनी सेवाएं दे रहे एडवोकेट अनूप कुमार ने बताया,कि यदि संबंधित अधिकारी कोर्ट के आदेशों की अवहेलना करते हैं,तो न्यायिक अवमानना अधिनियम, 1971 की धारा 2 (A) के तहत कंटेंप्ट आफ कोर्ट(न्यायालय की अवमानना) के तहत याचिका दायर की जा सकती है।
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अवमानना को ‘सिविल’ और ‘आपराधिक’ अवमानना में बाँटा गया है।
सिविल अवमानना: न्यायिक अवमानना अधिनियम, 1971 की धारा 2 ( B ) के अंतर्गत न्यायालय के किसी निर्णय, डिक्री, आदेश, रिट, अथवा अन्य किसी प्रक्रिया की जान बूझकर की गई अवज्ञा या उल्लंघन करना न्यायालय की सिविल अवमानना कहलाता है।
आपराधिक अवमानना: न्यायिक अवमानना अधिनियम, 1971 की धारा 2 ( C ) के अंतर्गत न्यायालय की आपराधिक अवमानना का अर्थ न्यायालय से जुड़ी किसी ऐसी बात के प्रकाशन से है, जो लिखित, मौखिक, चिह्नित , चित्रित या किसी अन्य तरीके से न्यायालय की अवमानना करती हो। न्यायिक अवमानना के मामले में वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण को सर्वोच्च न्यायालय ने दोषी करार दिया था।सर्वोच्च न्यायालय ने ट्वीट (tweet) से संबंधित विषय में स्वत: संज्ञान (Suo Motu) लेते हुए वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण को न्यायालय की अवमानना का दोषी माना था।न्यायिक अवमानना अधिनियम, 1971 के तहत न्यायाधीशों पर भी न्यायिक अवमानना का केस दर्ज किया जा सकता है। उदाहरण के लिये सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना पर न्यायाधीश सी.एस. कर्णन को छह माह कारावास का दंड मिला था। यह माननीय न्यायाधीश के ऊपर निर्भर करता है, कि वह इस पर क्या सुनवाई करते हैं। ज्यादातर ऐसे मामलों में सम्बंधित अधिकारी के बर्खास्तगी तक के आदेश पूर्व में जारी किए जा चुके हैं।