स्वप्न तुम्हारे देख देख कर कितनी रातें जागा हूँ….

Picture of nationstationnews

nationstationnews

 

लेखक- ई.प्रत्युष मिश्रा

स्वप्न तुम्हारे देख देख कर कितनी रातें जागा हूँ

तुम कस्तूरी जैसे थे और मैं हिरनों सा भागा हूँ

 

सीमायें चंचलताओं की लाँघ लाँघ के हार गया

लक्ष्य तुम्हीं को मान स्वयं से दूर मैं कितनी बार गया

एक नहीं सौ सौ लक्ष्मण रेखायें पार करी मैंने

तुम्हें जीतना चाहा मैंने किन्तु स्वयं को हार गया

मृगतृष्णा के वशीभूत मैं ऐसा एक अभागा हूँ

स्वप्न तुम्हारे ……

 

बाहर बाहर ढूँढ़ रहा हूँ अंदर झाँका कभी नहीं

योग्य तुम्हारे हूँ की ना हूँ ख़ुद को आँका कभी नहीं

सीता हरण सरल है माना सीता वरण बड़ा दुष्कर

सही ग़लत के भेद को मैंने परखा जाँचा कभी नहीं

उलझी उलझी गॉंठों वाला टूटा टूटा धागा हूँ

स्वप्न तुम्हारे ……

यह भी पढ़े

https://nationstationnews.com/latest-news/5295/ 

Leave a Comment

Our Visitor

0 1 5 4 1 6
Views Today :
Total views : 20550

Leave a Comment

इस पोस्ट से जुड़े हुए हैशटैग्स

error: Content is protected !!